पादपश्चिमोत्तानासन

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यह आसन करना कठिन है इससे उग्रासन कहा जाता है। उग्र का अर्थ है शिव। भगवान शिव संहारकर्त्ता हैं अतः उग्र या भयंकर हैं। शिवसंहिता में भगवान शिव ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा हैः यह आसन सर्वश्रेष्ठ आसन है। इसको प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखें। सिर्फ अधिकारियों को ही इसका रहस्य बतायें।

ध्यान मणिपुर चक्र में। श्वास प्रथम स्थिति में पूरक और दूसरी स्थिति में रेचक और फिर बहिर्कुम्भक।

विधिः बिछे हुए आसन पर बैठ जायें। दोनों पैरों को लम्बे फैला दें। दोनों पैरों की जंघा, घुटने, पंजे परस्पर मिले रहें और जमीन के साथ लगे रहें। पैरों की अंगुलयाँ घुटनों की तरफ झुकी हुई रहें। अब दोनों हाथ लम्बे करें। दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठे से दाहिने पैर का अंगूठा और बायें हाथ की तर्जनी और अंगूठे से बायें पैर का अंगूठा पकड़ें। अब रेचक करते-करते नीचे झुकें और सिर को दोनों घुटनों के मध्य में रखें। ललाट घुटने को स्पर्श करे और घुटने ज़मीन से लगे रहें। रेचक पूरा होने पर कुम्भक करें। दृष्टि एवं चित्तवृत्ति को मणिपुर चक्र में स्थापित करें। प्रारम्भ में आधा मिनट करके क्रमशः 15 मिनट तक यह आसन करने का अभ्यास बढ़ाना चाहिये। प्रथम दो-चार दिन कठिन लगेगा लेकिन अभ्यास हो जाने पर यह आसन सरल हो जाएगा।

लाभः पादपश्चिमोत्तनासन मे सम्यक अभ्यास से सुषुम्ना का मुख खुल जाता है और प्राण मेरूदण्ड के मार्ग में गमन करता है, फलतः बिन्दु को जीत सकते हैं। बिन्दु को जीते बिना न समाधि सिद्ध होती है न वायु स्थिर होता है न चित्त शांत होता है।

जो स्त्री-पुरूष काम विकार से अत्यंत पीड़ित हों उन्हें इस आसन का अभ्यास करना चाहिए। इससे शारीरिक विकार दब जाते हैं। उदर, छाती और मेरूदण्ड को उत्तम कसरत मिलती है अतः वे अधिक कार्यक्षम बनते हैं। हाथ, पैर तथा अन्य अंगों के सन्धि स्थान मजबूत बनते हैं। शरीर के सब तंत्र बराबर कार्यशील होते हैं। रोग मात्र का नाश होकर स्वास्थ्य़ का साम्राज्य स्थापित होता है।

इस आसन के अभ्यास से मन्दाग्नि, मलावरोध, अजीर्ण, उदररोग, कृमिविकार, सर्दी, वातविकार, कमर का दर्द, हिचकी, कोढ़, मूत्ररोग, मधुप्रमेह, पैर के रोग, स्वप्नदोष, वीर्यविकार, रक्तविकार, एपेन्डीसाइटिस, अण्डवृद्धि, पाण्डूरोग, अनिद्रा, दमा, खट्टी डकारें आना, ज्ञानतन्तु की दुर्बलता, बवासीर, नल की सूजन, गर्भाशय के रोग, अनियमित तथा कष्टदायक मासिक, बन्ध्यत्व, प्रदर, नपुंसकता, रक्तपित्त, सिरोवेदना, बौनापन आदि अनेक रोग दूर होते हैं। पेट पतला बनता है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है। कफ और चरबी नष्ट होते हैं।

शिवसंहिता में कहा है कि इस आसन से वायूद्दीपन होता है और वह मृत्यु का नाश करता है। इस आसन से शरीर का कद बढ़ता है। शरीर में अधिक स्थूलता हो तो कम होती है। दुर्बलता हो तो वह दूर होकर शरीर सामान्य तन्दुरूस्त अवस्था में आ जाता है। नाडी संस्थान में स्थिरता आती है। मानसिक शांति प्राप्त होती है। चिन्ता एवं उत्तेजना शांत करने के लिए यह आसन उत्तम है। पीठ और मेरूदण्ड पर खिंचाव आने से दोनों विकसित होते हैं। फलतः शरीर के तमाम अवयवों पर अधिकार स्थापित होता है। सब आसनों में यह आसन सर्वप्रधान है। इसके अभ्यास से कायाकल्प (परिवर्तन) हो जाता है।
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