बटेश्वर मंदिर


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बटेश्वर मंदिर स्थानीय लोगों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। वे सरल ग्रामीण है और उनका इन मंदिरों से जुडी कई अविश्वसनीय किवदंतियों पर
विश्वास है। स्थानीय राजपरिवारो में होड़ रहती थी भदावर के राजा भी अपने परंपरागत तीर्थ बटेश्वरनाथ महादेव पर चावल चढ़ाया करते थे। एक
बार गोहद के राणा २१ मन चावल से बटेश्वर शिवलिंग को न ढक सके, उसे भदौरिया राजा ने ७मन चावल से ही ढक दिया था। ऐसा कहा जाता है
की राज- परिवार की प्रमुख महिला वर्ष भर एक-एक चावल को शिव प्रार्थना माला के मनकों की भांति इस्तेमाल करती थी और अनाज की बोरी में जमा करती रहती थी जो राजपरिवार इन चावलों
से बटेश्वर शिवलिंग को ढक पता था वो ही क्षेत्र के सबसे धर्मपरायण स्त्री का स्वामी होने का दावा कर सकता था।
स्थानीय रूप से चावल उगाया नहीं जाता
था और महंगा था, किसी चतुर कर पंडित द्वारा इस छोटे से परीक्षण के द्वारा बेहतरीन अनाज की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करली गयी थी।जब औरंगजेब मंदिरों का विनाश करता व मस्जिद बनाता हुआ बटेश्वर आया तो यहाँ के कुछ मंदिर नष्ट
करने के बाद मुख्य मंदिर पर आया और अपनीतलवार से शिवलिंग पर वार किया तो शिवलिंग से पानी का फव्वारा छूटा, फिर वार करने पर दूध का फव्वारा छूटा, और तीसरे प्रयाश पर खून का फव्वारा
छूटा तो वह आतंकित हो भाग गया और कभी नहीं लौटा । यहाँ कोई मस्जिद नहीं बनाई गई और स्थानीय लोगों गर्व से इस तथ्य का दावा करते है कि मंदिर सुंदर है और शीर्ष पर भारी कटौती के साथ वहशिवलिंग जहां औरंगजेब की तलवार लगी थी अभी भी मौजूद है।
इसके अलावा बटेश्वर मेले का आयोजन आगरा से लगभग 70 किमी0की दूरीपर स्थित प्रसिद्ध पौराणिक धार्मिक स्थल बटेश्वर में प्रतिवर्ष कार्तिक मास में
दीपावली से लगभग एक सप्ताह पूर्व आयोजित
किया जाता है, जो पूरे एक माह चलता है।
शिवजी काएक नाम पशुपति भी है, बटेश्वर का पशुमेला इसे
सार्थक करता है। बटेश्वर का पशुओं का मेला पूरे भारत में प्रसिद्ध है। किसी समय इस मेले में बर्मा के हाथी, पेशावर के ऊँट
और काबुल के घोड़े बिकने आते थे। किंतु अब मेले ने दूसरा रूप ले लिया है फिर भी उत्तर भारत का यह पशुओं का सबसे बड़ा मेला है। बटेश्वर की गुझिया,
खोटिया बताशा और शक्कर-पारे प्रसिद्ध हैं।
मेले के अवसर पर यहाँ बहुत चहल-पहल रहती है, पशुमेला
तीन चरणों में पूरा होता है। पहले चरण में ऊँट, घोड़े
और गधों की बिक्री होती है, दूसरे चरण में गाय
आदि अन्य पशुओं की तथा अंतिम चरण में
सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मेला शुरू होने के एक
सप्ताह पहले से ही पशु-व्यापारी अपने पशु लेकर
यहां पहुँचने लगते हैं। मेले में पशुओं की विभिन्न प्रकार
की दौड़ों का आयोजन भी किया जाता है। मेले मेँ लोक कथायेँ भी जनमानस मेँ सुनने को मिल जाती हैँ -यथा ->1- युवराज बदन सिँह को शिव कृपा से कन्या से युवक बन जाना (अर्थात लिँग परिवर्तन)
2 - महाराज बदन सिँह द्धारा यमुना के बहाव की दिशा बदलना जो कि बदन बहाव के नाम से प्रसिद्ध है ।

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