त्रिबन्ध

 

मूलबन्ध

शौच स्नानादि से निवृत्त होकर आसन पर बैठ जायें। बायीं एड़ी के द्वारा सीवन या योनि को दबायें। दाहिनी एड़ी सीवन पर रखें। गुदाद्वार को सिकोड़कर भीतर की ओर ऊपर खींचें। यह मूलबन्ध कहा जाता है।

लाभः मूलबन्ध के अभ्यास से मृत्यु को जीत सकते हैं। शरीर में नयी ताजगी आती है। बिगड़ते हुए स्वास्थ्य की रक्षा होती है। ब्रह्मचर्य का पालन करने में मूलबन्ध सहायक सिद्ध होता है। वीर्य को पुष्ट करता है, कब्ज को नष्ट करता है, जठराग्नि तेज होती है। मूलबन्ध से चिरयौवन प्राप्त होता है। बाल सफेद होने से रुकते हैं।

अपानवाय ऊर्ध्वगति पाकर प्राणवायु के सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है। सहस्रारचक्र में चित्तवृत्ति स्थिर बनती है। इससे शिवपद का आनन्द मिलता है। सर्व प्रकार की दिव्य विभूतियाँ और ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। अनाहत नाद सुनने को मिलता है। प्राण, अपान, नाद और बिनदु एकत्रित होने से योग में पूर्णता प्राप्त होती है।

उड्डीयान बन्ध

आसन पर बैठकर पूरा श्वास बाहर निकाल दें। सम्पर्णतया रेचक करें। पेट को भीतर सिकोड़कर ऊपर की ओर खींचें। नाभि तथा आँतें पीठ की तरफ दबायें। शरीर को थोड़ा सा आगे की तरफ झुकायें। यह है उड्डीयानबन्ध।

लाभः इसके अभ्यास से चिरयौवन प्राप्त होता है। मृत्यु पर जय प्राप्त होती है। ब्रह्मचर्य के पालन में खूब सहायता मिलती है। स्वास्थ्य सुन्दर बनता है। कार्यशक्ति में वृद्धि होती है। न्योलि और उड्डीयानबन्ध जब एक साथ किये जाते हैं तब कब्ज दुम दबाकर भाग खड़ा होता है। पेट के तमाम अवयवों की मालिश हो जाती है। पेट की अनावश्यक  चरबी उतर जाती है।

जालन्धरबन्ध

आसन पर बैठकर पूरक करके कुम्भक करें और ठोड़ी को छाती के साथ दबायें। इसको जालन्धरबन्ध कहते हैं।

लाभः जालन्धरबन्ध के अभ्यास से प्राण का संचरण ठीक से होता है। इड़ा और पिंगला नाड़ी बन्द होकर प्राण-अपान सुषुम्ना में प्रविष्ट होते हैं। नाभि से अमृत प्रकट होता है जिसका पान जठराग्नि करता है। योगी इसके द्वारा अमरता प्राप्त करता है।

पद्मासन पर बैठ जायें। पूरा श्वास बाहर निकाल कर मूलबन्ध, उड्डीयानबन्ध करें। फिर खूब पूरक करके मूलबन्ध, उड्डीयानबन्ध और जालन्धरबन्ध ये तीनों बन्ध एक साथ करें। आँखें बन्द रखें। मन में प्रणव (ॐ) का अर्थ के साथ जप करें।

इस प्रकार प्राणायाम सहित तीनों बन्ध का एक साथ अभ्यास करने से बहुत लाभ होता है और प्रायः चमत्कारिक परिणाम आता है। केवल तीन ही दिन के सम्यक अभ्यास से जीवन में क्रान्ति का अनुभव होने लगता है। कुछ समय के अभ्यास से केवल या केवली कुम्भक स्वयं प्रकट होता है।

केवली कुम्भक

केवल या केवली कुम्भक का अर्थ है रेचक-पूरक बिना ही प्राण का स्थिर हो जाना। जिसको केवली कुम्भक सिद्ध होता है उस योगी के लिए तीनों लोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। कुण्डलिनी जागृत होती है, शरीर पतला हो जाता है, मुख प्रसन्न रहता है, नेत्र मलरहित होते हैं। सर्व रोग दूर हो जाते हैं। बिन्दु पर विजय होती है। जठराग्नि प्रज्वलित होती है।

केवली कुम्भक सिद्ध किये हुए योगी की अपनी सर्व मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। इतना ही नहीं, उसका पूजन करके श्रद्धावान लोग भी अपनी मनोकामनायें पूर्ण करने लगते हैं।

जो साधक पूर्ण एकाग्रता से त्रिबन्ध सहित प्राणायाम के अभ्यास द्वारा केवली कुम्भक का पुरूषार्थ सिद्ध करता है उसके भाग्य का तो पूछना ही क्या? उसकी व्यापकता बढ़ जाती है। अन्तर में महानता का अनुभव होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। केवली कुम्भक की महिमा अपार है।

 
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